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राधा-विरह

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राधा-विरह
by चन्दा झा
301172राधा-विरहचन्दा झा

भासलि नाव अगम जल सजनी पवन बहय बड़-जोर।।
एकसरि नारी कुदनि फल सजनी हठ मति नन्दकिशोर।।
के कह की गति होइत सजनी थर थर जिव मोर काँप।।
दुर जनि एक न होयति सजनी प्रगटल पुरविल पाप।।
जननी हमर जरातुर सजनी तकइति हयतिह वाट।।
विकल हृदय नहिं किछु फुर सजनी की विधि लिखल ललाट।।
कृष्ण ‘चन्द्र’ कर सोपल सजनी दुरलभ अपन शरीर।।
मनमथ दृढ़ आरोपल सजनी जिवइत देखवन तीर।।


This work was published before January 1, 1929, and is in the public domain worldwide because the author died at least 100 years ago.